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ToggleRussia Checkmates USA in Afghanistan !! : हाल ही में रूस ने अफगानिस्तान में तालिबान की सत्ता को आधिकारिक मान्यता दे दी और एस करने वाला रूस विश्व का पहला देश बन गया है। तालिबान सरकार ने रूस के इस कदम को बहादुरी भरा फैसला बताया है।
यह निर्णय इसलिये महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि जहाँ विश्व एक ओर अमेरिका के टैरीफ से त्रस्त है वहीं तालिबान की सत्ता से कोई भी देश आधिकारिक संबंध जोड़कर अमेरिका से दुश्मनी मोल नहीं लेना चाहता।
Russia Checkmates USA in Afghanistan !! : जाने पूरी खबर…

दरअसल गुरुवार (3 जुलाई, 2025) को (Russia Checkmates USA in Afghanistan !!) काबुल में अफगानिस्तानी विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी और अफगानिस्तान में रूस के राजदूत दिमित्री झिरनोव के बीच बैठक हुई जिसके बाद यह घोषणा की गई कि अफगानिस्तान में तालिबान की सत्ता को रूस ने आधिकारिक मान्यता दे दी है और इसी के साथ ऐसा करने वाला रूस दुनिया का पहला देश बन गया है।
जिसके बाद अफगानिस्तानी विदेश मंत्री मुत्ताकी ने रूस के इस कदम की सराहना करते हुए बहादुरी भरा फैसला बताया। उन्होंने आगे कहा “यह साहसी फैसला दूसरों के लिए एक मिसाल बनेगा। अब मान्यता की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है, इसमें रूस सबसे आगे रहा”।
तालिबान के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता जिया अहमद तकाल ने भी पुष्टि करते हुए कहा कि रूस पहला देश है जिसने इस्लामिक अमीरात को आधिकारिक मान्यता दी है।
इसी के साथ जब रूस ने आधिकारिक रूप से अफगानिस्तान में तालिबान सरकार को मान्यता दी उसके एक दिन बाद, तालिबान का झंडा मास्को (Moscow) में अफगानिस्तान के दूतावास के ऊपर देखा गया, जो कि संकेत है कि मास्को, काबुल के नेतृत्व के साथ निकट संबंध स्थापित करने की कोशिश कर रहा है।
रूस के अफगानिस्तान मामलों के विशेष प्रतिनिधि जामिर काबुलोव ने तालिबान सरकार को मान्यता देने की पुष्टि की। जिसके बाद रूस ने कहा कि मान्यता देने से द्विपक्षीय सहयोग तेजी से बढेगा।
साथ ही रुसी विदेश मंत्रालय ने भी बयान जारी कर कहा कि (Russia Checkmates USA in Afghanistan !!) इस्लामिक अमीरात की सरकार को मान्यता देने से दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय सहयोग तेजी से बढेगा।
Russia Checkmates USA in Afghanistan !! : आधिकारिक मान्यता मिलने के क्या हैं मायने..?
आपको बता दें कि जब एक देश दूसरे देश को आधिकारिक मान्यता देता है, तो वह उसे एक स्वतंत्र राष्ट्र मानता है। अर्थात उस देश की अपनी सरकार है, अपनी सीमा है और वह दुनिया के दूसरे देशों से रिश्ते बना सकता है।
यह मान्यता 1933 की मोंटेवीडियो संधि (Montevideo Convention) जैसे अन्तर्राष्ट्रिय कानूनों पर आधारित होती है। इसके लिए चार शर्तें होती हैं-
- स्थायी आबादी।
- सीमा।
- सरकार।
- विदेशों से संबंध बनाने की क्षमता।
मान्यता मिलने से किसी देश को वैधता, अन्तर्राष्ट्रिय संस्थाओं में जगह और दूसरे देशों से व्यापार व रिश्ते बनाने का मौका मिलता है।
Russia Checkmates USA in Afghanistan !! : अफगानिस्तान का ऐतिहासिक परिदृश्य..
प्राचीन काल में अफगानिस्तान कई भारतीय साम्राज्यों के प्रभाव में रहा है। चद्रगुप्त मौर्य ने सिकंदर की सेना को हराकर अफगानिस्तान को अपने साम्राज्य में मिलाया। वहीं मौर्य काल में ही यहाँ बौद्ध धर्म का खूब प्रचार-प्रसार हुआ, जिसके अवशेष जैसे बामियान के बुद्ध आज भी मिलते हैं।
7वीं शताब्दी के बाद अरबों और बाद में अन्य मुस्लिम शासकों ने यहाँ हमला बोला। जिसके बाद अफगानिस्तान में इस्लाम का प्रसार तेजी से हुआ। इसने इस क्षेत्र की सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान को पूरी तरह से नष्ट कर दिया। धीरे-धीरे भारत से इसका सांस्कृतिक-धार्मिक जुड़ाव कम होता गया।
वहीं, 10वीं और 12वीं शताब्दी में गजनवी और गोरी साम्राज्यों ने अफगानिस्तान में मुस्लिम सल्तनतों की स्थापना की। यह वह दौर था जब अफगानिस्तान एक अलग राजनीतिक शक्ति के रूप में स्थापित हो चका था।
18वीं शताब्दी के मध्य में अहमद शाह दुर्रानी ने आधुनिक अफगानिस्तान की नींव रखी। यह साम्राज्य अपनी सीमाओं और एक अलग अफगान पहचान के साथ उभरा।
वहीं, रिपोर्ट्स के अनुसार, 26 मई 1739 को मुगल बादशाह मुहम्मद शाह रंगीला और फारस के शासक नादिर शाह के बीच कंधार की संधि हुई। जिसके बाद अफगानिस्तान भारत की सल्तनत से पूरी तरह अलग हो गया।
18वीं शताब्दी के अंत तक भारत पर अंग्रेजों का शासन था और शासन का विस्तार करने के क्रम में अंग्रेजों ने साल 1839 में अफगानिस्तान पर हमला कर दिया। तब कहा जाता था कि अंग्रेजी राज में कभी सूरज डूबता नहीं है, लेकिन अफगानिस्तान में अंग्रेजों का सपना टूट गया। जंग में शुरुआती कामयाबी के करीब 2 वर्ष बाद अफगानी सेनाओं ने अंग्रेजी सेना को मात दे दी और अंग्रेजों को अफगानिस्तान से खाली हाँथ लौटना पड़ा।

परंतु, अंग्रेजों ने हार नहीं मानी। प्रथम अंग्रेज-अफगान युद्ध में हारने के करीब 36 वर्ष बाद अंग्रेजों ने एक और कोशिश की। 1878 में अंग्रेजों ने फिर से अफगानिस्तान पर हमला किया और इस बार अंग्रेज फतह हासिल करने में कामयाब रहे। इतिहास की किताबों में इसे दूसरे एंग्लो-अफगान वॉर के रूप में दर्ज किया गया है।
इस जंग को जीतने के बाद अंग्रेजों की ओर से सर लुईस कावानगरी और अफगानिस्तान की ओर से किंग मोहम्मद याकूब खान के बीच एक संधि हुई, जिसे गंदमक की संधि कहा गया। परंतु कुछ ही दिनों के अंदर ही मोहम्मद याकूब खान ने इस संधि को मानने से इनकार कर दिया। उसने दोबारा पूरे अफगानिस्तान पर अपना कब्जा जमाना चाहा और नतीजा ये हुआ कि अंग्रेजों ने पलटवार किया। कंधार में जमकर जंग हुई, जिसमें अंग्रेज फिर से जीत गए।
इसके बाद अंग्रेजों ने अपनी पसंद के अब्दुल रहमान खान को शासक बना दिया और नए सिेरे से गंदमक की संधि की, जिसमें तय हुआ कि अब अंग्रेज अफगानिस्तान के किसी हिस्से पर हमला नहीं करेंगे।
इस संधि के बाद ब्रिटिश इंडिया की सरकार ने एक अंग्रेज अधिकारी मॉर्टिमर डूरंड को 1893 में काबुल भेजा ताकि वहाँ पर अन्तर्राष्ट्रिय स्तर पर कारोबार के साथ ही सांस्कृतिक, आर्थिक, मिलिट्री और राजनीति के स्तर पर अफगानिस्तान के शासक अब्दुल रहमान खान के साथ एक समझौता किया जा सके।
परिणामस्वरूप, 12 नवंबर, 1893 को ब्रिटिश इंडिया और अफगानिस्तान के बीच एक समझौता हुआ, जिसमें दोनों देशों की सीमाओ का निर्धारण किया गया।

दोनों ओर के अधिकारी अफगानिस्तान के खोस्त प्रांत के पास बने पाराचिनार शहर में बैठे और दोनों देशों के बीच नक्शे पर एक लकीर खींच दी गई। इसी लाइन को कहा जाता है डूरंड लाइन। इस लाइन के जरिए एक नए प्रांत नॉर्थ-वेस्ट फ़्रंटियर प्रोविस को बनाया गया, जिसे आम तौर पर खैबर पख्तूनख्वा कहते हैं।
इस बंटवारे के साथ ही एक जातीय समूह का भी बंटवारा हुआ। ये समूह था पश्तून का, जो डूरंड लाइन के पास रहते थे। लाइन खींचने की वजह से आधे से ज्यादा पश्तून ब्रिटिश इंडिया में रह गए और बाकी के अफगानिस्तान में चले गए।
एक और भी जातीय समूह था जो ब्रिटिश इंडिया वले हिस्से में था और ये समूह था पंजाबियों का। पश्तून और पंजाबी हमेशा एक दूसरे से लड़ते रहते थे क्योंकि पंजाबियों को काफिर माना जाता था और बदलते समय के साथ पंजाबियों को अफगानिस्तान के शासक अब्दुल रहमान खान ने जबरन मुस्लिम बना दिया।
मई 1919 में ब्रिटिश इंडिया ने अफगानिस्तान पर फिर से हमला कि दिया, जिसे इतिहास में थर्ड एंग्लो-अफगान वॉर के रूप में जाना जाता है। इस जंग को खत्म करने के लिए 8 अगस्त 1919 को ब्रिटिश साम्राज्य और अफगानिस्तान के बीच रावलपिंडी में एक समझौता हुआ और तय हुआ कि ब्रिटिश साम्राज्य अफगानिस्तान को एक स्वतंत्र देश की मान्यता देगा, जबकि अफगानिस्तान डूरंड लाइन को अन्तर्राष्ट्रिय सीमा रेखा मानेगा।
Russia Checkmates USA in Afghanistan !! : सोवियत संघ-अफगानिस्तान ऐतिहासिक संबंध..
वर्ष 1919 में अफगानिस्तान अग्रेजों की गुलामी से आजाद हो चका था। उसी के बाद अफगानिस्तान में राजशाही शुरू हुई। अगले 54 वर्षों तक शाह परिवार ने वहाँ राज किया।
अफगानिस्तान के आखरि राजा मोहम्मद जहीर शाह 1973 में बीमार हुए। इलाज के लिए उन्हें इटली जाना पड़ा। लेकिन उनके इटली जाते ही उनके सेनापति दाऊद खान ने तख्ता पलट कर दिया और खुद को अफगानिस्तान का प्रधानमंत्री घोषित कर दिया। साथ ही 1977 में दाऊद खान ने संविधान के नाम पर सिंगल पार्टी सिस्टम कायम कर दिया और फिर 1978 में पहली बार वहा एक जन क्रांति के नाम से आंदोलन शुरु हो गया। जिसकी अगुवाई की नूर मोहम्मद तारीकी ने। उन्हें अफगान जनता का भरपूर समर्थन मिला और आखिकार क्रांति कामयाब हो गई। दाऊद खान को कुर्सी छोड़नी पड़ी।

अब अफगानिस्तान की सत्ता नूर मोहम्मद तारीकी के हाथों में थी। वो अफगानिस्तान के पहले राष्ट्रपति बने। नूर मोहम्मद तारीकी तब के सोवियत संघ (USSR) के बेहद करीबी माने जाते थे।
तब सोवियत संघ एक कम्यूनिस्ट देश के तौर पर जाना जाता था। सोवियत संघ से दोस्ती के बाद नूर मोहम्मद तारीकी ने पहली बार अफगानिस्तान का आधुनिकीकरण शुरु किया।
लेकिन नूर मोहम्मद तारीकी की आधुनिकीकरण की कोशिश और महिलाओं की आजादी, वहाँ के कई कबीलों को रास नहीं आई, उन्हें ये सब इस्लाम के खिलाफ लगता और यहीं से मजहब के नाम पर नूर मोहम्मद तारीकी का विरोध शुरु हो गया।
ये वो दौर था जब सोवियत संघ और अमेरिका के बीच कोल्ड वॉर चल रहा था। नूर मोहम्मद तारीकी का इस्तेमाल कर सोवियत संघ, अफगानिस्तान में अपनी पैठ बना रहा था, तो वहीं उसी वक्त अमेरिका ईरान में आधुनिकीकरण के नाम पर अपनी पहुँच बढा रहा था।
अफगानिस्तान में सोवियत संघ के बढते दबदबे को देखते हुए अमेरिका ने भी अफगानिस्तान में अपनी ताकत आजमाने का फैसला किया। अमेरिका ने वहाँ मजहब के नाम पर नूर मोहम्मद का विरोध करने वाले अफगानी मुसलमानों को भडकाना शुरू कर दिया।

इस काम के लिए अमेरिका ने CIA की मदद से नूर मोहम्मद तारीकी के विदेश मंत्री हफीजुद्दीन अमीन को अपने साथ मिला लिया और अफगान लोगों को मुजाहिद्दीन बनाने की ट्रेनिंग भी शुरु कर दी। इस काम के लिए अमेरिका ने पाकिस्तान की भी मदद ली। मुजाहिद्दीन की ट्रेनिंग पाकिस्तान में होने लगी साथ ही हथियारों के लिए पैसे भी दिए जाने लगे। मजहब के नाम पर ही तारीकी सरकार को गिराने के लिए अमेरिका ने सऊदी अरब को भी अपने साथ मिला लिया। इसी के बाद सऊदी अरब से बहुत सारे लोग सोवियत संघ और तारीकी सरकार से लड़ने के लिए अफगानिस्तान पहुँच गए। इन्हीं लोगों में से एक था ओसामा बिन लादेन।
कुछ समय बाद CIA की मदद से विदेश मंत्री हफीजुद्दीन अमीन ने नूर मोहम्मद तारीकी और उसके पूरे परिवार का खात्मा कर दिया।
हालांकि, नूर मोहम्मद तारीकी की मौत से गुस्साए सोवियत संघ ने 25 दिसंबर 1989 को अपनी थल सेना के साथ अफगानिस्तान पर हमला बोल दिया। रूसी सेना ने काबुल में घुस कर हफीजुद्दीन अमीन को मार डाला।
Russia Checkmates USA in Afghanistan !! : कैसे हुई तालिबान की उत्पत्ति..?

रुसी सेना की वापसी के साथ ही मुजाहिद्दीन आपस में ही भिड़ गए। मुजाहिद्दीनों ने अपने-अपने इलाकों में अपने गुट बना लिए। इसकी वजह से अफगानिस्तान में गृह युद्ध छिड़ गया। धीरे-धीरे इस गृह युद्ध में छोटे-छोटे गुट हारते चले गए और जो विजयी बनकर उभरा, वो गुट अफगानिस्तान के छात्रों का था यानी तालिब और तालिब में भी एक नाम जो सबसे ज्यादा उभरकर सामने आया, वो नाम था मुल्ला उमर का।
यह वही मुल्ला उमर है जिसने तालिबान को जन्म दिया और वर्ष 1998 में पहली बार अफगानिस्तान की सत्ता तालिबान को सौंपी।
Russia Checkmates USA in Afghanistan !! : अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी..

29 फरवरी, 2020 को अमेरिका-तालिबान ने एक शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए। इसमें 14 महीनों में अमेरिकी सैनिकों की पूर्ण वापसी की बात कही गई थी, इस शर्त पर कि तालिबान अफ़गान सरकार के साथ शांति वार्ता में भाग लेगा और अल-कायदा और आईएसआईएल (ISIL) से जुड़े संगठनों को अफ़गानिस्तान में काम करने से रोकेगा। समझौते में यह शर्त शामिल नहीं थी कि तालिबान अफ़गान सरकार के साथ समझौता करे।
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के प्रशासन में 30 अगस्त, 2021 को सैनिकों कि वापसी पूरी हुई।
जिसके बाद से अफगानिस्तान में तालिबान का शासन रहा जिसे किसी देश ने लंबे समय तक आधिकारिक मान्यता नहीं दी। हालांकि, चीन, पाकिस्तान और ईरान जैसे कई देशों ने अपने-अपने यहाँ तालिबान राजनयिकों को तैनात कर रखा है, लेनकि अभी तक किसी देश ने भी तालिबान शासन को आधिकारिक मान्यता नहीं दी थी।
परंतु रूस ने इस प्रथा को तोड़ा और (Russia Checkmates USA in Afghanistan !!) तालिबान शासन को आधिकारिक मान्यता दे कर विश्व का राजनीतिक परिदृश्य बदलने का प्रयास किया है।
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